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उपनिषद् भाष्य परिचय:
उपनिषद् वाङ्मय सनातन वैदिक संस्कृति के स्तम्भ हैं। प्रत्येक पंथ, सम्प्रदाय, विचारधारा ने उपनिषदों की भूरि भूरि प्रशंसा की है। विदेशी विद्वानों ने भी उपनिषदों को विद्वता की पराकाष्ठा स्वीकार किया है। उपनिषद् पर अनेक भाष्य उपलब्ध हैं। अनेक विद्वानों ने अपनी अपनी विचारधारा के अनुरूप इसकी व्याख्या की है। अतः उपनिषदों के द्वैत, अद्वैत अनेक भाष्य मिलते है। जहाँ ये भाष्य भी ज्ञान की अद्भुत पूञ्जियाँ हैं, वहाँ इनके पढ़ने वाले कई बार अन्यथा के विवादों में पड़ जाते हैं जिनका निराकरण निष्पक्ष आत्मसाधना एवं वैदिक ज्ञान में है न कि निज अवधारणाओं की पुष्टि के बलात् प्रयास में। हमने मोक्षार्थियों के लिए बहुत प्रयास के बाद एक ऐसे भाष्य को चुना है जो अपना आधार वेद-संहिता मात्र को मानता है जैसा कि समस्त सनातन-शास्त्रों का आदेश है। भाष्य की भाषा को कुछ स्थानों में हमने परिवर्धित किया है ताकि पढ़ने में सुभीता हो। कुछ अनावश्यक प्रसंगों को हटा दिया गया है। हमारा उद्देश्य साधक की मोक्ष-साधना को सरल बनाना है। उसी उद्देश्य से इस भाष्य का सम्पादन किया गया है।
ब्रह्म-साधना के राजपथ पर आपका स्वागत है।
ईशोपनिषद्: कर्मयोग एवं ब्रह्मविद्या का ईश्वरीय संदेश
ईशोपनिषद् यजुर्वेद संहिता के चालिसवें अध्याय का ही नाम है। वेद का ही भाग होने से यह साक्षात् ईश्वर-वाणी ही है। एकादश मुख्य उपनिषदों में सबसे संक्षिप्त किंतु सबसे गूढ़ उपनिषद् यही है। गीता के कर्मयोग का जनक, वेदान्त का आदि आधार, ईश्वर के स्वरूप का दार्शनिक आधार एवं ॐ का प्रतिपादक यही ग्रंथ है। इसके १७ मंत्रों में समस्त ब्रह्म-विद्या का सार है। इसके अध्ययन के बिना शास्त्र-अध्ययन अधूरा है।
केनोपनिषद्प: ब्रह्मविद्या की अद्भुत व्याख्या)
यह ( केन) उपनिषद् सामवेद के तलवकार (जैमिनीय) ब्राह्मण के नवम अध्याय में है। इसलिए इस उपनिषद् का प्राचीन नाम तलवकारोपनिषद् हैं परन्तु चूंकि यह उपनिषद् “केन" शब्द से प्रारम्भ होती है, इस लिए इस को ईशोपनिषद् की भांति केनोपनिषद् कहा जाने लगा। ईशोपनिषद् के चौथे मन्त्र में - 'नैनद्देवा आप्नुवन्' - यह एक वाक्य आया है, जिसका अर्थ यह है कि ईश्वर इन्द्रियों से प्राप्त होने योग्य नहीं है। इसी मूल शिक्षा के आधार पर इस (केन) उपनिषद् की रचना हुई है। समस्त (केन) उपनिषद् में इसी शिक्षा का विस्तार हुआ है। ब्रह्मज्ञान का अर्थ क्या है? हम ईश्वर को जानते हैं, इसका मतलब क्या है? इस प्रश्न का उत्तर इसी उपनिषद् में दिया गया है। इसी ईश्वर की खोज का नाम ब्रह्मविद्या है।
मुण्डक उपनिषद् : ईश्वरप्राप्ति ही कर्म का प्रयोजन
अथर्ववेदीय मुण्डकोपनिषद् का मुख्य विषय ब्रह्म है। यह विलक्षण उपनिषद् उत्तम रीति से यह दर्शाता है कि मनुष्य के उत्तम से उत्तम कर्म व यज्ञ भी निरर्थक हैं यदि उसका ध्येय ईश्वरप्राप्ति नहीं है। न तो कर्म से विमुख होना धर्म है, न कर्म को निर्विकार ईशसाधना से विमुख करना धर्म है।माण्डुक्योपनिषद् : ॐ की व्याख्या
माण्डुक्योपनिषद्: ॐ की व्याख्या
ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ नाम "ओ३म्" की विशद् व प्रामाणिक व्याख्या करने वाली यह लघुग्रंथ प्रत्येक मानव मात्र के लिए पठनीय है। ओ३म् क्या है एवं ओ३म् किस प्रकार मोक्ष-परमानंद का वाहन है, यह इस उपनिषद् का प्रतिपाद्य विषय है।
ऐतरेयोपनिषद् : सृष्टिरचना व जन्म-मरण का विज्ञान
सृष्टि कैसे हुई? क्यों हुई? जन्म-मरण के चक्र का क्या प्रयोजन है? जीवात्मा का ईश्वर के साध क्या सम्बन्ध है। इन सब का अतीव मनोरम, साहित्यिक, गहन एवं आलंकारिक वर्णन यह असाधारण उपनिषद् करता है। ईश-साधक के लिए इसका अनुशीलन परम्परागत रूप से अनिवार्य रहा है क्योंकि यह आपके आत्मचिंतन के नूतन आयाम खोलता है।
तैत्तिरीयोपनिषद्: सनातन गुरुकुल परम्परा का आधार
न केवल ईश्वर-जीव-प्रकृति-सृष्टि की सारगर्भित व्याख्या इस अप्रतिम पुस्तक में प्राप्य है किन्तु गुरुकुल पद्धति का प्राचीन काल से आधार भी यह तैत्तिरीयोपनिषद् रहा है। गुरु द्वारा शिष्य को जो पारम्परिक रूप से शिक्षा दी जाती है, उसका स्रोत यही उपनिषद् है - सत्यं वद, धर्मं चर, मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव ...। भारतीय संस्कृति को समझना हो तो इसका पठन अनिवार्य ही है।
श्वेताश्वतरोपनिषद्: ईश्वर ही सर्वश्रेष्ठ है, ध्येय है
ईश्वर के स्वरूप का वर्णन, प्राणसाधना द्वारा ईश-साधना एवं ईश्वर को त्याग कर कुछ भी और साधना करना मूढता है - यह उपनिषद् इसे अतीव सुन्दर सुग्राह्य रूप में समझाता है। संसार के उथल-पुथल से आत्मा दिग्भ्रमित हो तो यह ग्रंथ पुनः आपको आपके ध्येय एवं क्षमता का ज्ञान कराएगा।
छान्दोग्योपनिषद्: ॐ को समर्पण
इस प्राचीन एवं बृहद् उपनिषद् में विविध विषयों का समावेश है। ब्रह्मोपासना, सामोपासना, मन की विवेचना अत्यंत प्रज्ञाविस्तारक हैं।
बृहदारण्यकोपनिषद्: जीव, ब्रह्म, देव की व्याख्या
शतपथ ब्राह्मण का यह अंतिम भाग सभी उपनिषदों में सबसे विस्तृत है। यद्यपि वर्त्तमान में उपलब्ध संस्करणों में कुछ प्रक्षेप एवं विषयांतर दिखता है, किन्तु जीवात्मा, ब्रह्म, देवता आदि का क्या स्वरूप है, उसका अत्यंत विशद वर्णन इस उपनिषद् में मिलता है। इसकी भाषा अत्यंत प्राचीन है तथा वेद-संहिताओं के समीप है। अतः वेदार्थी के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।
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34 | 30 | 28 | 4 | 00 | 3 | 155/75A | 36 | 44 |
36 | 32 | 30 | 6 | 0 | 5 | 155/80A | 38 | 44 |
38 | 34 | 32 | 8 | 2 | 7 | 160/84A | 40 | 55 |
40 | 36 | 34 | 10 | 4 | 9 | 165/88A | 42 | 55 |
42 | 38 | 36 | 12 | 6 | 11 | 170/92A | 44 | 66 |
44 | 40 | 38 | 14 | 8 | 13 | 175/96A | 46 | 66 |
46 | 42 | 40 | 16 | 10 | 15 | 170/98A | 48 | 77 |
48 | 44 | 42 | 18 | 12 | 17 | 170/100B | 50 | 77 |
50 | 46 | 44 | 20 | 14 | 19 | 175/100B | 52 | 88 |
52 | 48 | 46 | 22 | 16 | 21 | 180/104B | 54 | 88 |